Tuesday, 7 October 2014

तेरी आँखें

इन्हें देखता हूँ 
तो ठेहेर सा जाता हूँ मैं 
सोचता हूँ इनमें छिपे जज़्बात लिखूं 
या खूबसूरत शाम के बाद छाई 
कोई काली घनेरी रात लिखूं 

पलकें उठा कर जब देखती हो 
मानो ऐसा लगता है 
कुछ केहना चाहती हो तुम्हारी नज़र 
मगर फिर गुमसुम सी रह जाती हो 
सोचता हूँ इनहे हसीन अंदाज़ लिखूं 
या असीम गहराई में छिपे 
प्रशांत-ए-राज़ लिखूं 

इनमे झाँको तो एक आग दिखाई देती है 
यूँ लगता है के मानो खुद को जल रहीं हों 
सोचता हूँ इन्हें एक मशाल लिखूं 
पर फिर इनकी 'माया' में खो जाता हूँ 
तुम्ही मुझे बता दो के मैं क्या लिखू

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